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हैदराबाद सत्याग्रह

आज देश का दुर्भाग्य है कि जीन लोगों ने कभी इतिहास पढा नही वह इतिहास बदलने की बात करते हैं

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आज से 70 वर्ष पूर्व 17 सितंबर 1948 हैदराबाद राज्य (वर्तमान का हैदराबाद शहर और कर्नाटक राज्य) का विलय भारतीय संघ मे हुआ था।
तत्कालीन हैदराबाद राज्य में बहुमत जनता हिन्दू थी पर राज्य मुसलमान था। निजाम अपनी रियासत को पाकिस्तान मे मिलाने चाहता था और 1930 से ही हिन्दूओ को इस्लाम कबुलने के लिए तरह तरह दबाव बनाया करता था।
हैदराबाद शहर मे प्रथम आर्य समाज की स्थापना 1892 मे स्थापना हुई। 1938 तक तत्कालीन हैदराबाद राज्य मे 250 से ज्यादा आर्य समाज के केंद्र खुल गए थे। इसी के साथ आर्य समाज ने बहुसंख्यक हिन्दूओ हित मे आर्य समाज मे अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी थी। जिन्हें दबाव से मुसलमान बनाया गया था उनके लिए शुद्धि आंदोलन चलाया गया।
*घर वापसी मे प्रख्यात विद्वान पंडित रामचंद्र देहलवी जी के भाषणो का महत्वपूर्ण योगदान रहता था।
आर्य समाज को हैदराबाद को इस्लामिक राज्य बनाने मे सबसे बङा रोङा मानते हुए, निजाम ने संगठन पर कङे प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए। इसमे सम्मेलन करने, किसी नई जगह पर हवन करने पर भी प्रतिबंध था। यहां तक ओ३म् का भगवा झंडा लहराने पर भी जेल भेज दिया जाता था।
9 अक्टूबर 1938 को आर्य समाज ने महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व मे निजाम के विरूद्ध पहला सत्याग्रह किया। इसके बाद करीब 6 और सत्याग्रह हुए।12000 सत्याग्रहियो मे से 7000 हैदराबाद राज्य के बाहर से थे। इसमे बङी संख्या गुरुकुल कांगङी हरिद्वार के ब्रह्मचारीयो की थी।सैकड़ों कार्यकर्ताओ जेल में डाला गया जिसमे से कुछ ने अनशन के दौरान अपने प्राण त्याग दिए।

आज देश का दुर्भाग्य है कि जीन लोगों ने कभी इतिहास पढा नही वह इतिहास बदलने की बात करते हैं……संसार के सम्मानित राष्ट्रों का इतिहास उन व्यक्तियों के चरित्रों से सदा भरपूर रहा है, जिन्होंने उच्च एवं पवित्र उद्देष्यों की पूर्ति के लिए महान् से महान् त्याग किया और समय पड़ने पर इस संघर्ष में अपने जीवन को न्योछावर कर दिया और पीछे बलिदानों के अवषेश रख गए, जो अनुगामियों का पथ प्रदर्शन कर सकते हैं

शहीदों को मृत्यु कभी स्पर्श नहीं करती अपितु वे स्वयं मर कर अमर हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है। ऐसी महान् आत्माओं का रक्त कदापि व्यर्थ नहीं गया अपितु समय आने पर एक ऐसे प्रखर प्रचंड रूप में प्रवाहित हो निकला जिसमें हिंसा, अत्याचार और पाशविकता के दल स्वतः निमग्न हो गए। ये व्यक्ति धर्म-प्रचार, सदुपदेश, प्रजावाद की प्रस्थापना, शांति और प्रेम एवं सत्य को साधारण व्यक्तियों तक पहुंचाने के लिये अपने जीवन-लक्ष्य की कठिनाईयों को पार कर आगे बढ़ते ही रहे। इन्होंने सदा पराक्रान्तों का साथ दिया और मानवता के उच्च आदर्शो के रक्षक हुए और इन हेतुओं से निज तन-मन-धन की बलि देकर स्पष्ट कर दिया कि इनका सेवा कार्य में कितना उत्साह था तथा बलिवेदी से कितना ऊंचा प्रेम था।

आर्य समाज के शहीद मरने के बाद अमर हो गये और इन हुतात्माओं के रक्त से हैदराबाद में वैदिक धर्म का जो चमन सींचा गया, वह अब एक विस्तृत उद्यान बन गया है और रियासत में वैदिक धर्म का नव सन्देश दे रहा है। यहां हम कुछ आर्य समाजी शहीदों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो वर्तमान में संसार में उपस्थित तो नहीं हैं पर वे सबके ह्रदयों में स्मरण रहेंगे और ऐसा प्रतीत होता है कि हम इन्हें कभी भूल नहीं सकेंगे।

1. वेद प्रकाश जी
वेद प्रकाष जी का पूर्व नाम दासप्पा था। दासप्पा संवत् 1827 में गुजोटी में पैदा हुए। इनकी माता का नाम रेवती बाई और पिताश्री का नाम रामप्पा था। गरीब माता-पिता को इसकी क्या सूचना थी कि उनका बेटा बड़ा होकर हुतात्मा बनेगा और वैदिक धर्म के मार्गं में शहीद होकर अमर हो जाएगा। दासप्पा ने मराठी माध्यम से आठवीं श्रेणी तक षिक्षा ग्रहण की। जैसे-जैसे ये बढ़ते गये वैसे-वैसे वे धर्म की ओर आकर्षित होते गये। वे आर्य समाज के सत्संगों में बराबर सम्मिलित होते थे। वैदिक धर्म के आकर्षण ने इन्हें महर्शि दयानन्द का पक्का भक्त बना दिया। आर्य समाजी बनने के बाद यह वेद प्रकाश कहलाने लगे थे। इनका आर्य समाज में असाधारण प्रेम एवं निश्ठा के ही कारण गुंजोटी में आर्य समाज की नींव डाली गयी पर स्थानीय इर्स्यालू यवन इन्हें देखकर जलने लगे थे। वेद प्रकाश जी सुगठित शरीर एवं सद्गुण रखते थे और लाठी-तलवार चलाने की विद्या में पर्याप्त दक्ष थे। इनकी यह दक्षता कई भयंकर संकटों के समय इनकी सहायक सि( हुई। कई बार विरोधी दल ने इन पर आक्रमण किये और ये अपने आपको सुरक्षित रखने में सफल हुए।

गुंजोटी का छोटे खां नाम का एक पठान स्त्रियों को गलत निगाहों से देखता था। एक दिन वेद प्रकाश जी ने इसे ऐसा करने से रोका और सावधान किया कि भविष्य में इस प्रकार कुद्रष्टि मातसमाज पर न डालें। यह बात गुण्डों को हृदयग्राही न थी और सब इनके शत्रु हो गए। वेद प्रकाश जी ने गुंजोटी में हिन्दुओं के लिये पान की एक दुकान खोल दी और चांद खान पान का एक व्यापारीद्ध इनका शत्रु हो गया और भीतर ही भीतर इनके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगा। एक दिन यवनों ने स्थानीय आर्य समाज के मन्त्री के मकान पर अकस्मात् धावा बोल दिया, इसकी सूचना वेद प्रकाश जी को मिली, वे इन आक्रमणकारियों को रोकने के लिए निःशस्त्र ही चले गये। मन्त्री के मकान के समीप दो-तीन मुसलमानों ने इन्हें पकड़ लिया और आठ-नौ व्यक्तियों ने इन्हें नीचे गिरा कर हत्या कर दी। विषेश उल्लेखनीय बात यह है कि उस दिन पुलिस ने वहां के प्रतिष्ठित हिन्दुओं को थाने में बुलाकर बैठा रखा था। आक्रमकत्र्ताओं और हत्यारों को पहचान लिया गया और न्यायालय में गवाह भी उपस्थित किये, पर फिर भी हत्यारों को निर्दोश घोषित कर दिया गया। वेद प्रकाश जी का रक्त हैदराबाद में पहला रक्त था जो बड़ी निर्दयता के साथ बहाया गया था और इसके बाद वीर आर्यों के बलिदानों का एक सिलसिला सा चल पड़ा।

2. धर्म प्रकाश जी

धर्म प्रकाश जी का पूर्व नाम नागप्पा था। नागप्पा जी का जन्म कल्याणी में संवत् 1839 में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम सायन्ना था। इनका पदार्पण जब आर्य समाज में हुआ तब से ये धर्म प्रकाश कहलाने लगे। कल्याणी एक मुस्लिम नवाब की जागीर थी। वहां मुसलमानों का अत्याचार नंग-नाच कर रहा था। मुसलमानो के अत्याचारों को देखकर धर्म प्रकाश इसकी रोक-थाम की तैयारी में लग गये। हिन्दुओं को शस्त्र विद्या सिखाने लगे। कल्याणी के मुसलमान हिन्दुओं के शारीरिक अभ्यास से रुस्ठ हो गये और उन्होंने इनकी हत्या करने की कमर कस ली। कल्याणी के इस धर्मवीर पर कई बार आक्रमण किये गये पर आक्रमकारियों को सफलता नहीं मिली। कल्याणी के खाकसार इनकी हत्या की ताक में रहने लगे। 27 जून 1837 ई. की रात को धर्म प्रकाश आर्य समाज कल्याणी के सत्संग से अपने घर वापस जा रहे थे कि खाकसारों ने इन्हें एक गली में घेर कर बरछों और भालों की सहायता से मार डाला। वेद प्रकाश की हत्या से आर्य समाज में शोक व दुःख की लहर दौड़ गयी। इस हत्याकाण्ड के हत्यारे भी न्यायालय से निर्दोष छोड़ दिये गये।

3. महादेव जी

महादेव जी अकोलगा के रहने वाले थे। साकोल आर्य समाज के सत्संगों में जब इन्हें कई बार सम्मिलित होने का अवसर मिला, तब वैदिक धर्म का जादू इन पर चढ़ गया। इनके मन और मस्तिक्ष पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि आर्य समाजी बन जाने के बाद वैदिक धर्म के प्रचार की धुन लग गयी। तरुणोत्साह और साहस इन्हें इस मार्ग पर आगे बढ़ाता ही रहा। महादेव जी की मुखाकष्ति पर तेज था। भाषण देते समय इनके मुख से जो वाक्य निकलते, उन्हें लोग बड़ी तन्मयता और रुचि से सुनते और एक तरुण आर्य युवक को प्रचार के काम में इस प्रकार तल्लीन देखकर लोगों को भी इच्छा होती थी कि वे भी इसी प्रकार बनें। महादेव जी के प्रचार का काम जब प्रगति पर था उस समय मुसलमान इनके अकारण षत्रु बन गये। कई बार इन पर इस द्रष्टि से आक्रमण हुए कि वे सदा के लिए मौन हो जाए पर वे बचते ही रहे।

एक दिन की घटना है कि महादेव जी अपने प्रिय धर्म प्रचारार्थ कहीं जा रहे थे कि रास्ते में किसी अज्ञात व्यक्ति ने पीछे से आकर छुरा घोंप दिया और 14 जुलाई 1938 के दिन यह आर्य युवक 25 वर्ष की आयु में सदा के लिए इस संसार से बिदा हो गया।

4. श्याम लाल जी

धर्मवीर श्याम लाल जी का जन्म 1903 ई. भालकी में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम भोला प्रसाद और माता का छोटूबाई था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मराठी में हुई। ये एक पौराणिक परिवार से थे। इनके एक मामा आर्य समाजी थे, जिनके प्रभाव से श्याम लाल जी के ज्येश्ठ भ्राता बंसीलाल जी वैदिक धर्म के अनुयायी और स्वामी दयानन्द के अन्तःकरण के भक्त बन गये और आर्य समाज के सर्वप्रिय नेता भी कहलाने लगे। गुलबर्गा में आपके ही प्रयासों से आर्य समाज की स्थापना हुई। वे स्वयं इस समाज के मन्त्री बनकर कार्य संचालन करते रहे। 1925 ई. में वकील बने और उदगीर में वकालत करने लगे। निजी जीविकोपयोगी कार्य करते हुए आर्य समाज का प्रचार भी करते थे। 1926 ई. में इन्हें चर्म रोग लग गया और वह इतना बढ़ा कि पूरा शरीर फूल गया। रोग निवारणार्थ आप लाहौर गये। अभी आप लाहौर में ही थे कि 1926 ई. में स्वामी श्रद्धानन्द जी शहीद हो गये। स्वामी जी के इस बलिदान का प्रभाव इन पर अत्यधिक पड़ा। लाहौर से वापस आकर उदगीर में आर्य समाज की स्थापना की और प्रतिज्ञा की कि आजीवन वैदिक धर्म का प्रचार करेंगे। उदगीर के तात्कालीन मुसलमान तहसीलदार ने स्थानीय मुसलमानों को प्रेरित कर इनके मकान पर आक्रमण करवा दिया, परन्तु यह आक्रमण विफल रहा। आर्य समाज उदगीर की स्थापना के बाद आपके अथक प्रयासों से विजय दशमी के अवसर पर प्रथम बार जुलूस निकाला गया। होली के जुलूस के अवसर पर आप पर पुनः आक्रमण हुआ पर इस बार भी आप बच गये। श्याम लाल जी ने अछूतों के लिए एक पाठशाला, एक व्यायाम शाला तथा एक निःशुल्क चिकित्सालय भी स्थापित किया। 1928 ई. में उदगीर आर्य समाज का वार्षिकोत्सव हुआ और इसी के बाद पुलिस आपका पीछा करने लगी।

इसी वर्ष धारा 104 के अधीन आप पर झूठा मुकद्दमा चलाया गया और आपसे दो हजार की जमानत और मुचलका लिया गया। श्याम लाल जी उदगीर से बाहर निकलकर भालकी, कल्याणी, औराद, शाहजहानी, लातूर तथा औसा आदि स्थानों पर प्रचार करने लगे। कई बार मुसलमानों ने आप पर आक्रमण किया और कई ऐसे अवसर आये जब कि हिन्दुओं ने आपको अपने पास आश्रय देना अस्वीकार किया। आपने कई रातें मार्ग पर चलते हुए बितायीं और दिन में फिर प्रचार कार्य किया। 1935 ई. में माणिक नगर की यात्रा के अवसर पर मुसलमानों ने आप पर छुरा घोंप देने का प्रयत्न किया पर एक नवयुवक बीच में आया, स्वयं जख्मी हुआ और इन्हें बचा लिया। 1938 ई. में इन पर पुलिस ने एक झूठा मुकद्दमा चलाया और न्यायालय ने इन्हें दीर्घकालिक दण्ड दिया। अभी आप कारावास में दंड भोग रहे थे कि आपका देहांत हो गया। पं. श्याम लाल जी का नाम हैदराबाद आर्य समाज के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा रहेगा क्योंकि ये अपने अथक प्रयत्नों, संघर्ष और श्रद्धा से आर्य समाज को शक्तिषाली और विस्तृत करने की चिन्ता अन्तिम श्वास तक करते रहे।

5. व्यंकटराव जी

व्यंकटराव जी कंधार जिला नांदेड़ के रहने वाले थे। इन्होंने स्टेट कांग्रेस द्वारा संचालित सत्याग्रह में भाग लिया और दण्ड भोगते रहे। कारावास के अधिकारियों द्वारा मार-पीट के कारण 18 अप्रैल 1938 ई. में आप परलोक सिधार गये।

6. विष्णु भगवान् जी

विष्णु भगवान् जी ताण्डूर ;गुलबर्गाद्ध के रहने वाले थे। इन्होंने गुलबर्गा में ही सत्याग्रह किया और वहीं इन्हें कारावास का दण्ड दिया गया। आपको गुलबर्गा से औरंगाबाद और फिर हैदराबाद जेल में रखा गया और यहां दूसरे सत्याग्रहियों के साथ इन्हें इतना पीटा गया कि ये सहन न कर सके और 2 मई 1939 ई. में आपने 30 वर्ष की आयु में अपना शरीरान्त किया।

7. माधवराव सदाशिवराव जी

आप लातूर के रहने वाले थे। आपने 30 वर्ष की आयु में आर्य सत्याग्रह में भाग लिया और गुलबर्गा जेल में बन्द कर दिये गए। 26 मई 1939 ई. के दिन कड़कती धूप में नंगे पैर जेल में कठिन परिश्रम करने से रोगग्रस्त हो गए। चिकित्सा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया और आप इस प्रकार निजाम सरकार की क्रूरता के कारण देहावसान कर गये। माधव राव सदाशिवराव के देहान्त की सूचना पाकर असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन करने गए पर पुलिस ने रोक दिया और जेल में ही इनका शव अग्नि की भेंट कर दिया गया।

8. पाण्डुरंग जी

उस्मानाबाद के रहने वाले युवा आर्य सत्याग्रही को सत्याग्रह के कारण ही कारावास का दंड दिया गया था। गुलबर्गा जेल में इन पर इन्फुएंजा का आक्रमण हुआ पर चिकित्सा का कोई प्रबन्ध न किया गया। हालत चिन्ताजनक होती गई। 25 मई 1939 के दिन इन्हें नागरिक औषधालय में भेजा गया और वहीं 27 मई को इनका देहान्त हो गया। असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन को आए पर पुलिस ने इन्हें वापस जाने पर विवश कर दिया और पुलिस द्वारा ही इनका अन्तिम संस्कार किया गया।

9. राधाकृष्ण जी

राधाकृष्ण जी निजामाबाद के एक राजस्थानी थे। 1903 ई. में आपका जन्म हुआ था। आपके पिता का नाम जीतमल था। 1934 ई. में आप आर्य समाजी बने और तभी से इसके प्रचार की धुन लग गई। इन्होंने ही निजामाबाद में आर्य समाज की स्थापना की थी। इसी कारण आप पुलिस की वक्रद्रष्टि में खटने लगे। मुहर्रम के दिनों में आप पर मुकद्दमा चलाया गया और इनसे एक साल के लिए दो हजार रुपये का मुचलका लेकर छोड़ा गया। आर्य सत्याग्रह के समय आप बड़े उत्साह के साथ चन्दा एकत्रित करने में जुटे थे। 2 सितम्बर 1931 ई. के दिन एक अरबी ने छुरा घोंप कर मार डाला और यह बात सर्व विदित हो गई कि इनकी हत्या के षड्यंत्र में पुलिस का हाथ था।

10. लक्ष्मण राव जी

आपने धार्मिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किया। जेल के कठोर व्यवहार को सहन न कर सकने के कारण 3 अगस्त 1939 ई. को हैदराबाद जेल में आपका देहान्त हो गया।

11. शिवचन्द्र जी

आपका जन्म 3 मार्च 1916 ई. में दुबलगुण्डी में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम अन्नपक्षप्पा था। 1935 ई. में मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। सरकार की ओर से आपको छात्रवष्त्ति भी प्राप्त हुई थी। आप हुमनाबाद की एक पाठशाला में अध्यापक हो गये थे। पाठशाला के अवकाष के समय आप आर्य समाज के साहित्य का अध्ययन किया करते थे। आर्य समाज के लिए आपने बड़े उत्साह और श्रद्धा से काम किया। शोलापुर से आप सत्याग्रहियों को हैदराबाद लाते थे और सत्याग्रह के समाचार हैदराबाद से बाहर भेजते थे। 3 मार्च 1942 ई. के दिन होली में जुलूस के अवसर पर मुसलमानों ने आक्रमण कर दिया, फलस्वरूप आप शहीद हो गए। आप के साथ आपके साथी लक्ष्मण राव जी, राम जी अगडे़ और नरसिंह राव जी गोलियों का निषाना बने थे।

12. राम कृष्ण जी

राम कृष्ण जी का जन्म लावसी ग्राम में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था और यह शहीद होने से केवल दो सप्ताह पूर्व ही आर्य समाजी बने थे। एक दिन पठानों ने घोषणा की थी कि ‘उस दिन वे मन्दिर को तोड़ेंगे, जिसे धर्म पर विश्वास हो वे आकर उन मन्दिरों को उनके हाथों से बचा लें।’ सब हिन्दू घबरा कर अपने-अपने मकानों में बैठ गये किन्तु जब राम ने यह घोषणा सुनी तो वे क्रोधाग्नि से जल उठे। पुजारियों ने कभी इन्हें मन्दिर में प्रवेश होने नहीं दिया था और फिर आर्य समाजी होने के कारण इन्हें मन्दिर और इन मन्दिरों की मूर्तियों से क्या रुचि, परन्तु पठानों की इस घोषणा को इन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू जाति के लिए एक चैलेंज समझा और जाति की मान रक्षा हेतु मन्दिर द्वार पर अपना डेरा डाला। यहाँ इन पर गोलियों की वर्षा हुई, घायल होने पर भी आपने पठानों को मार भगाया और हिन्दू जाति की लाज रख ली। स्वयं शहीद होकर इन्होंने मन्दिर की रक्षा की और जिस जाति में वे पैदा हुए थे, उसकी प्रतिष्टा रख ली।

13. भीम राव जी

आप हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनके मित्र माणिक राव की बहन को मुसलमानों ने मुसलमान बना लिया था। भीमराव ने उसे शुद्ध कर लिया था। इस कारण मुसलमानों ने क्रोधित होकर इनके घर को आग लगा दी और इन्हें मार कर इनके हाथ-पांव काट डाले और इन्हें आग में जला दिया।

14. माणिक राव जी

यह भी हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनकी बहन को मुसलमान बना लिया गया था। जब इनकी बहन को शुद्ध कर लिया गया तो मुसलमानों ने माणिक राव जी को गोलियों का निशाना बना दिया था।

15. सत्य नारायण जी

आप अम्बोलगा ;वीदरद्ध के रहने वाले थे। आर्य समाज का काम बड़े जोष के साथ करते थे, इसीलिए मुसलमान इनके शत्रु हो गए। मुहर्रम के दिनों में वे बाजार से जा रहे थे कि एक मुसलमान ने पीछे से तलवार से हमला कर दिया। वे तुरन्त ही चिकित्सालय पहुंचाए गये पर वहां जाते ही परलोक सिधार गये।

16. महादेव जी

यह तिवाड़े के रहने वाले थे। गुलबर्गा में ही सत्याग्रह करने के कारण जेल में डाल दिए गये थे। जेल वालों के अत्याचार से 1939 ई. में ही चल बसे।

17. अर्जुन सिंह जी

आप आर्य समाज के एक नर-रत्न थे। आप तालुका कन्नड़ औरंगाबाद में पैदा हुए थे। बचपन से ही आप हैदराबाद में रहने लगे थे। अपने उत्साह और निष्ठां के कारण आप हैदराबाद दयानन्द मुक्ति दल के सेनापति बनाए गए थे। सम्वत् 1861 में जंगली विठ्ठोबा की यात्रा में कुषल प्रबन्ध करने के बाद घर वापस लौट रहे थे कि मार्ग में कुछ सशस्त्र मुसलमानों ने आप पर आक्रमण कर दिया, तुरन्त ही उस्मानिया दवाखाना भेजे गए पर दूसरे ही दिन परलोक सिधार गये।

18. गोविन्द राव जी

आप निलंगा जिला बीदर के रहने वाले थे। सत्याग्रह करके जेल गये। पर वहां के अत्याचारों को सहन न कर सकने के कारण देहावसान कर गये।

19. गोन्दिराव जी, लक्ष्मण राव जी इन दोनों ने सत्याग्रह में अपनी जान की बाजी लगा दी। आर्य समाजी शहीदों का यह बहुत ही संक्षिप्त परिचय है। जिसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हैदराबाद में वे निजाम सरकार और मुसलमानों के अत्याचारों का किस प्रकार निषाना बने और वैदिक पताका को ऊॅंचा रखने के लिए किस प्रकार इन्होंने अपना अन्तिम रक्त बिन्दु तक बहा दिया।

द्वारा-डॉ विवेक आर्य/नसीब सैनी

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जेएनयू में फीस वृद्धि के नाम पर राजनीति

—यह भी सुनने में आ रहा है कि आंदोलन में शामिल होने वाले व्यक्तियों में कई लोग राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं

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सुरेश हिन्दुस्थानी

देश के उच्च शिक्षा केन्द्र जब राजनीति के अड्डे बनने की ओर कदम बढ़ाने लगें, तब वहां की शिक्षा की दिशा-दशा क्या होगी, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। फीस बढ़ोतरी के खिलाफ किया जाने वाला दिल्ली का छात्र आंदोलन कुछ इसी प्रकार का भाव प्रदर्शित कर रहा है, जहां केवल और केवल राजनीति ही की जा रही है। किसी भी आंदोलन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके पीछे जनहित का कितना भाव है। दिल्ली का यह आंदोलन जनसरोकार से कोसों दूर दिखाई दे रहा है।

हालांकि इसके पीछे बहुत से अन्य कारण भी होंगे। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि आज जेएनयू की जो छवि जनता के बीच बनी है, वह जनता को खुद ही दूर कर रही है। जिस विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारों की ध्वनि गूंजित होती है, वह कभी जन आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सकते हैं।दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के जिन छात्रों ने कभी भारत के टुकड़े करने के नारे लगाए थे, आज वे ही छात्र फीस बढ़ोतरी के छोटे से मामले को राजनीतिक रुप देने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं। इस छात्र आंदोलन का राजनीतिक स्वरुप इसलिए भी दिखाई दे रहा है, क्योंकि इसमें राष्ट्रीय मानबिन्दुओं और केन्द्र सरकार को सीधे निशाने पर लिया जा रहा है। जेएनयू वामपंथी विचारधारा का एक बड़ा केन्द्र रहा है।

वामपंथी धारा के कार्यकर्ता देश के महानायकों के बारे में क्या सोच रखते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। पिछले घटनाक्रमों को देखें तो पाएंगे कि जेएनयू में देश के विरोध में वातावरण बनाने का काम किया जाता रहा है। वहां आतंकवादी बुरहान वानी के समर्थन में कार्यक्रम किए जाते हैं। सवाल यह कि जेएनयू में शिक्षा के नाम पर आखिर क्या हो रहा है। जहां तक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में फीस बढ़ोतरी की बात है तो यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि विगत 19 वर्ष से विश्वविद्यालय के छात्रावास के कमरों और भोजन का शुल्क नहीं बढ़ाया गया, जबकि पिछले 19 सालों में महंगाई का ग्राफ बहुत ऊपर गया है। इस सबका भार पूरी तरह से विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के कंधों पर ही आया। देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी शिक्षा महंगी हो रही है, जो जेएनयू के मुकाबले बहुत अधिक है। ऐसे में विश्वविद्यालय द्वारा कुछ हद तक फीस बढ़ाना न्यायोचित कदम ही है। जिसे वहां के कई छात्र भी सही मानते हैं। लेकिन यह आंदोलन इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि इसमें परदे के पीछे राजनीतिक कार्यकर्ता भूमिका निभा रहे हैं। यह भी सुनने में आ रहा है कि आंदोलन में शामिल होने वाले व्यक्तियों में कई लोग राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं।

खैर… यह जांच का विषय हो सकता है।देश के प्रसिद्ध अधिवक्ता सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इस छात्र आंदोलन के बारे में बहुत ही गहरी बात कही है। उनका मानना है कि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय को कुछ समय के लिए बंद कर दिया जाए। उनके इस कथन के गहरे निहितार्थ निकल रहे हैं। स्वामी के संकेत को विस्तार से समझना हो तो एक बार जेएनयू की गतिविधियों का अध्ययन करना चाहिए। फिर वह सब सामने आ जाएगा जो वहां होता है। कहा जाता है कि इस विश्वविद्यालय में जमकर राजनीति की जाती रही है। देश के जो शिक्षा केन्द्र राजनीति के केन्द्र बनते जा रहे हैं, उन पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।

वर्तमान में जिस प्रकार से जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय का आंदोलन चल रहा है, उसे छात्र आंदोलन कहना न्याय संगत नहीं होगा। क्योंकि, यह विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन है। फीस बढ़ोतरी का विरोध तो मात्र बहाना है। इस आंदोलन के समर्थन में देश की संसद में कांग्रेस और वामपंथी दलों की ओर से आवाज उठाई गई। इससे यही संदेश जाता है कि इस विश्वविद्यालय में जो देश विरोधी नारे लगाए गए, उनके प्रति इन राजनीतिक दलों के समर्थन का ही भाव रहा होगा। इतना ही नहीं, जब भारत तेरे टुकड़े होंगे और हमें चाहिए आजादी जैसे नारे लगाए गए थे, तब भी कांग्रेस और वाम दलों ने खुलेआम समर्थन किया था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि कहीं यही दोनों दल छात्रों को आंदोलन करने के लिए तो नहीं उकसा रहे? अगर यह सही है तो फिर केन्द्र सरकार को दोष देना सही नहीं कहा जा सकता।

जब से देश में राजनीतिक सत्ता का परिवर्तन हुआ है, तब से ही देश में उन संस्थानों की सक्रियता दिखाई देने लगी है, जो भारत के बारे में भ्रम का वातावरण बनाने में सहायक हो सकते हैं। चाहे वह शहरी नक्सलवाद को प्रायोजित करने वाले कथित बुद्धिजीवियों की संस्था हो या फिर उनके विचार को अंगीकार करने वाली ही संस्थाएं क्यों न हों। सभी केन्द्र सरकार का विरोध करने के लिए आगे आ रहे हैं। इस विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने वाले छात्र कभी भारतीय सेना द्वारा की जाने वाली आतंकियों के विरोध में कार्यवाही पर सवाल उठाते दिखाई देते हैं तो कभी अनुच्छेद 370 को हटाने का विरोध करते हैं। चार वर्ष पूर्व जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में छात्र संघ की उपाध्यक्ष रहीं शेहला राशिद ने भारतीय सेना के विरोध में जमकर भड़ास निकाली थी, जबकि सेना की ओर से स्पष्ट कहा गया था कि ऐसा कुछ भी नहीं है। इससे समझ में आ सकता है कि इस विश्वविद्यालय में कौन-सा पाठ पढ़ाया जाता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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देश की युवा पीढ़ी में विदेशों के प्रति रुचि बढ़ी

—गांव के लोगों की सोच भी शहरी सोच से प्रभावित हो रही है। खासकर गांव के युवाओं में शहरियों के अनुकरण और शहर को पलायन की प्रवृति लगातार बढ़ रही है

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मनोज ज्वाला

एक मीडिया संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश के पढ़े-लिखे और शहरी नौजवानों में से आधे से अधिक ऐसे हैं, जो अपने देश को पसंद नहीं करते। वे विदेशों में जाकर बस जाना चाहते हैं। लगभग दो साल पहले के उक्त सर्वेक्षण के मुताबिक उनमें से 75 फीसदी युवाओं का कहना था कि वे बे-मन और मजबूरीवश भारत में रह रहे हैं। 62.08 फीसदी युवतियों और 66.01 फीसदी युवाओं का मानना था कि भारत  में उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। क्योंकि, यहां अच्छे दिन आने की संभावना कम है। उनमें से 50 फीसदी का मानना था कि भारत में किसी महापुरुष का अवतरण होगा, तभी हालात सुधर सकते हैं, अन्यथा नहीं।

40 फीसदी युवाओं का मानना था कि उन्हें अगर इस देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, तो वे पांच साल में इस देश का कायापलट कर देंगे।अखबार का वह सर्वेक्षण आज भी बिल्कुल सही लगता है। अगर व्यापक स्तर पर सर्वेक्षण किया जाता, तो देश छोड़ने को तैयार युवाओं का प्रतिशत और अधिक दिखता। वह सर्वेक्षण तो सिर्फ शहरों तक सीमित था। अपने देश में गांवों पर भी तेजी से शहर छाते जा रहे हैं। गांव के लोगों की सोच भी शहरी सोच से प्रभावित हो रही है। खासकर गांव के युवाओं में शहरियों के अनुकरण और शहर को पलायन की प्रवृति लगातार बढ़ रही है। गौर कीजिए कि देश छोड़ने को तैयार वे युवा पढ़े-लिखे हैं और शहरों में पले-बढ़े हैं। वे किस पद्धति से किस तरह के विद्यालयों में क्या पढ़े-लिखे हैं और किस रीति-रिवाज से कैसे परिवारों में किस तरह से पले-बढ़े हैं, यह ज्यादा गौरतलब है।

विद्यालय सरकारी हों या गैर सरकारी, सभी में शिक्षा की पद्धति एक है और वह है मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति। भारतीयता विरोधी इसी शिक्षा पद्धति को सरकारी मान्यता प्राप्त है। सरकार का पूरा तंत्र इसी तरह की शिक्षा के विस्तार में लगा हुआ है। वैसे अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय सबसे अच्छे माने जाते हैं और गैर-सरकारी निजी क्षेत्र के अधिकतर विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के ही हैं। शहरों में ऐसे ही विद्यालयों की भरमार है और जिन युवाओं के बीच उक्त मीडिया संस्थान ने उपरोक्त सर्वेक्षण किया उनमें से सर्वाधिक युवा ऐसे ही तथाकथित ‘उत्कृष्ट’ विद्यालयों से पढ़े-लिखे हुए हैं। अब रही बात यह कि इन विद्यालयों में आखिर शिक्षा क्या और कैसी दी जाती है, तो यह इन युवाओं की उपरोक्त सोच से ही स्पष्ट है।

जाहिर है, उन्हें शिक्षा के नाम पर ऐसी-ऐसी डिग्रियां दी जाती हैं, जिनके कारण वे महात्वाकांक्षी, स्वार्थी बनकर असंतोष, अहंकार, खीझ, पलायन एवं हीनता-बोध से ग्रसित हो जाते हैं और कमाने-खाने भर थोड़े-बहुत हुनर हासिल कर स्वभाषा व स्वदेश के प्रति ‘नकार’ भाव से पीड़ित होकर विदेश चले जाते हैं।थॉमस विलिंग्टन मैकाले कोई शिक्षा-शास्त्री नहीं था। वह एक षड्यंत्रकारी था, जिसने भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की जड़ें जमाने की नीयत से भारतीय शिक्षा-पद्धति की जड़ें उखाड़कर मौजूदा शिक्षा-पद्धति को प्रक्षेपित किया था। जो आज भी उसी रूप में कायम है। 20 अक्टूबर 1931 को लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ फौरन अफेयर्स के मंच से महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘अंग्रेजी शासन से पहले भारत की शिक्षा-व्यवस्था इंग्लैण्ड से भी अच्छी थी।’ उस पूरी व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से समूल नष्ट कर देने के पश्चात ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की जरूरतों के मुताबिक उसके रणनीतिकारों ने लम्बे समय तक बहस-विमर्श कर के मैकाले की योजनानुसार यह शिक्षा-पद्धति लागू की थी।

मैकाले ने ब्रिटिश पार्लियामेंट की शिक्षा समिति के समक्ष कहा था ‘हमें भारत में ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करना चाहिए, जो हमारे और उन करोड़ों भारतवासियों के बीच जिन पर हम शासन करते हैं, उन्हें समझाने-बुझाने का काम कर सके। जो केवल खून और रंग की दृष्टि से भारतीय हों, किन्तु रुचि, भाषा व भावों की दृष्टि से अंग्रेज हों।’ विदेशों में बस जाने को उतावले भारतीय युवाओं ने पूरी मेहनत व तबीयत से मैकाले शिक्षा-पद्धति को आत्मसात किया है, ऐसा समझा जा सकता है। यहां प्रसंगवश मैकाले के बहनोई चार्ल्स ट्रेवेलियन द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट की एक समिति के समक्ष ‘भारत में भिन्न-भिन्न शिक्षा-पद्धतियों के भिन्न-भिन्न परिणाम’ शीर्षक से प्रस्तुत किये गए एक लेख का यह अंश भी उल्लेखनीय है कि ‘मैकाले शिक्षा-पद्धति का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता। हमारे पास उपाय केवल यही है कि हम भारतवासियों को यूरोपियन ढंग की उन्नति में लगा दें। इससे हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत आसान और असंदिग्ध हो जाएगा।’ ऐसा ही हुआ। बल्कि, मैकाले की योजना तो लक्ष्य से ज्यादा ही सफल रही।

हमारे देश के मैकालेवादी राजनेताओं ने अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के बाद भी उनकी अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति को न केवल यथावत कायम रखा, बल्कि उसे और ज्यादा अभारतीय रंग-ढंग में ढाल दिया। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष लक्षित प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति को अतीत के गर्त में डालकर शिक्षा को उत्पादन-विपणन-मुनाफा-उपभोग-केन्द्रित बना देने और उसे नैतिक सांस्कृतिक मूल्यों से विहीन कर देने तथा राष्ट्रीयता के प्रति उदासीन बना देने का ही परिणाम है कि हमारी यह युवा पीढ़ी महज निजी सुख-स्वार्थ के लिए अपने देश से विमुख हो जाना पसंद कर रही है। उसे विदेशों में ही अपना भविष्य दीख रहा है।

माना कि हमारे देश में तरह-तरह की समस्याएं हैं, किन्तु इनसे जूझने और इन्हें दूर करने की बजाय पलायन कर जाने अथवा कोरा लफ्फाजी करने कि हमें प्रधानमंत्री बना दिया जाए तो हम देश को सुंदर बना देंगे, अति महात्वाकांक्षा-युक्त मानसिक असंतुलन का ही द्योत्तक है। लेकिन आधे से अधिक ये शहरी युवा मानसिक रुप से असंतुलित नहीं हैं, बल्कि असल में वे पश्चिम के प्रति आकर्षित हैं। इसके लिए हमारे देश की चालू शिक्षा-पद्धति का पोषण करने वाले हमारे राजनेता ही जिम्मेवार हैं। यह ‘यूरोपियन ढंग की उन्नति’ के प्रति बढ़ते अनावश्यक आकर्षण का परिणाम है। इस मानसिक पलायन को रोकने के लिए जरूरी है कि हम अपने बच्चों को हमारे राष्ट्र की जड़ों से जोड़ने वाली और संतुलित समग्र मानसिक विकास करने वालीप्राचीन भारतीय पद्धति से भारतीय भाषाओं में समस्त ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने की सम्पूर्ण व्यवस्था कायम करें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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भाई-बहन में प्रेम भाव बढ़ाता है भैया दूज

–बताया जाता है कि भगवान सूर्यदेव की पत्नी छाया की कोख से यमराज और यमुना का जन्म हुआ था

Published

योगेश कुमार गोयल

(भैया दूज, 29 अक्टूबर पर विशेष)

भाई-बहन के दिलों में पावन संबंधों की मजबूती और प्रेमभाव स्थापित करने वाला पर्व है भैया दूज। इस दिन बहनें अपने भाईयों को तिलक लगाकर ईश्वर से उनकी दीर्घायु की कामना करती हैं। कहा जाता है कि इससे भाई यमराज के प्रकोप से बचे रहते हैं। दीपावली के दो दिन बाद अर्थात कार्तिक शुक्ल द्वितीया को मनाए जाने वाले इस पर्व को ‘यम द्वितीया’ व ‘भ्रातृ द्वितीया’ के नाम से भी जाना जाता है। बहुत से भाई-बहन सौभाग्य तथा आयुष्य की प्राप्ति के लिए इस दिन यमुना अथवा अन्य पवित्र नदियों में साथ-साथ स्नान भी करते हैं। भैया दूज मनाने के संबंध में कई किवंदतियां प्रचलित हैं। एक कथा यमराज और उनकी बहन यमुना देवी से संबंधित है। बताया जाता है कि भगवान सूर्यदेव की पत्नी छाया की कोख से यमराज और यमुना का जन्म हुआ था। यमुना अपने भाई यमराज से बहुत स्नेह करती थीं और अक्सर उनसे अनुरोध करती रहती थीं कि वे अपने इष्ट-मित्रों सहित उसके घर भोजन के लिए पधारें लेकिन यमराज हर बार उसके निमंत्रण को किसी न किसी बहाने से टाल जाते। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना ने यमराज को एक बार फिर भोजन के लिए आमंत्रित किया।

उस समय यमराज ने विचार किया कि मैं तो अपने कर्त्तव्य से बंधा सदैव प्राणियों के प्राण ही हरता हूं। इसलिए इस चराचर जगत में कोई भी मुझे अपने घर नहीं बुलाना चाहता। लेकिन बहन यमुना तो मुझे बार-बार अपने घर आमंत्रित कर रही है। इसलिए अब तो उसका निमंत्रण स्वीकार करना ही चाहिए।यमराज को अपने घर आया देख यमुना की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने भाई का खूब आदर-सत्कार करते हुए उनके समक्ष नाना प्रकार के व्यंजन परोसे। बहन के आतिथ्य से यमराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे कोई वर मांगने को कहा। इस पर यमुना ने उनसे अनुरोध किया कि आप प्रतिवर्ष इसी दिन मेरे घर आकर भोजन करें और मेरी तरह जो भी बहन इस दिन अपने भाई का आदर-सत्कार करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने बहन यमुना को उसका इच्छित वरदान दे दिया। ऐसी मान्यता है कि उसी दिन से ‘भैया दूज’ का पर्व मनाया जाने लगा। भैया दूज के संबंध में और भी कई कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी ही एक कथा के अनुसार, एक ब्राह्मण की दो संतानें थी।

एक पुत्र एवं एक पुत्री। पुत्री बहुत समझदार एवं गुणवती थी। वह अपने भाई से जी-जान से प्यार करती थी। एक दिन उसका भाई उससे मिलने उसकी ससुराल पहुंचा। उस समय वह सूत कातने में व्यस्त थी। अतः उसे भाई के आने का पता ही न चल सका। भाई भी बिना कुछ बोले चुपचाप एक ओर बैठा रहा। जब थोड़ी देर बाद बहन की नजर उस पर पड़ी तो भाई को अपने घर आया देख उसे बेहद खुशी हुई। उसने भाई का भरपूर आदर-सत्कार किया। अगले दिन भाई को वापस लौटना था। अतः रास्ते के लिए वह आटे के पकवान बनाने के उद्देश्य से चक्की में आटा पीसने लगी। अनजाने में चक्की में बैठा सांप भी आटे के साथ पिस गया। उसी आटे के पकवान एक पोटली में बांधकर उसने भाई को रास्ते में खाने के लिए देकर विदा किया। भाई के घर से जाने के बाद जब उसे यह मालूम हुआ कि आटे में सांप पिस गया है तो अपने पुत्र को पालने में ही सोता छोड़कर वह अपने भाई के प्राणों की रक्षा के लिए दौड़ी। कुछ दूर जाने पर उसे एक पेड़ की छांव में अपना भाई सोता दिखाई दिया। तब तक उसने पोटली में से कुछ भी नहीं खाया था। उसने भगवान का शुक्रिया अदा किया और पोटली उठाकर दूर फेंक दी तथा भाई के साथ मायके की ओर चल दी।

रास्ते में उसने देखा कि भारी-भारी शिलाएं आकाश में उड़ रही हैं। उसने एक राहगीर से इस रहस्य के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया कि जो बहन अपने भाई पर कभी नाराज न होती हो और उसे दिलो-जान से चाहती हो, उस भाई की शादी के समय ये शिलाएं उसकी छाती पर रखी जाएंगी। थोड़ी दूर चलने पर उसे नाग-नागिन दिखाई दिए। नाग ने बताया कि ये शिलाएं जिस व्यक्ति की छाती पर रखी जाएंगी, हम उसे डंस लेंगे। जब बहन ने इस विपत्ति से बचने का उपाय पूछा तो नाग-नागिन ने बताया कि अगर भाई के विवाह के समय उसके सभी कार्य बहन स्वयं करे, तभी भाई की जान बच सकती है।जब उसके भाई के विवाह के लग्न का शुभ मुहूर्त आया तो वह भाई को पीछे धकेलती हुई स्वयं ही लग्न चढ़वाने के लिए आगे हो गई और घोड़ी पर भी स्वयं चढ़ गई। परिवारजन और संबंधी उसके इस विचित्र व्यवहार से हैरान तथा क्रोधित थे। उसके घोड़ी पर चढ़ते ही शिलाएं उड़ती-उड़ती आई लेकिन घोड़ी पर किसी पुरूष की जगह एक महिला को बैठी देख वापस मुड़ गई। जब सुहागरात का समय आया तो वह भाई को पीछे कर खुद भाभी के साथ सोने उसके कमरे में चली गई।

परिवार के सभी सदस्य तथा सभी रिश्तेदार उसके इस अजीबोगरीब व्यवहार से बेहद आश्चर्यचकित और खफा थे। उन्हें उस पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन उसके जिद के समक्ष सभी विवश थे। सुहागरात पर नियत समय पर नाग-नागिन उसके भाई को डंसने कमरे में पहुंच गए लेकिन उसने नाग-नागिन को मारने की सारी तैयारी पहले ही कर रखी थी। आखिरकार उसने नाग-नागिन का काम तमाम कर दिया। उसके बाद वह निश्चिंत होकर सो गई। सुबह होने पर सभी मेहमानों को विदा करने के बाद परिवार वालों ने सोचा कि अब इस बला को भी कुछ बचा-खुचा देकर यहां से चलता कर दिया जाए लेकिन नींद से जागने पर जब उसने पूरी घटना के बारे में सब को विस्तार से बताया कि किस प्रकार वह अपने बच्चे को पालने में ही सोता छोड़कर दौड़ी-दौड़ी भाई के प्राण बचाने के लिए उसके पीछे चली आई और सभी को नाग-नागिन के मृत शरीर दिखाए तो सभी की आंखों में आंसू आ गए।

भाई के प्रति उसका असीम प्यार तथा समर्पण भाव देखकर उसके प्रति सभी का हृदय श्रद्धा से भर गया।भाई-भाभी तथा माता-पिता ने उसे ढेर सारे उपहारों से लादकर बड़े मान-सम्मान के साथ खुशी-खुशी ससुराल से विदा किया। भाई-बहन के बीच इसी प्रकार के पावन संबंध, प्रेमभाव तथा उनके दिलों में आपसी संबंधों को मजबूत बनाने के लिए ही ‘भैया दूज’ पर्व मनाया जाता है।

(लेखक स्तंभकार हैं।)

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