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लेख

हरियाणा के जर्र जर्रे ने दी कुर्बानी

प्रथम स्‍वतंत्र्य समर की 162वीं वर्षगांठ पर विशेष

आज देश 1857 के महासमर की 162वीं वर्षगांठ मना रहा है। पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े भारत का यह पहला सामूहिक और योजनाबद्ध प्रयास था, जब उसने अंग्रेज की सत्‍ता को खुली चुनौती दी। आजादी की इस पहली लड़ाई के योद्धा ब्रिटिश हुकूमत से मुकाबला कर गए, लेकिन उसके बाद जयचंदी इतिहासकारों से हार गए। अनेक इतिहासकारों ने इस महासमर को सैनिक विद्रोह तो कुछ ने कुछ रजवाड़ों का आक्रोश बता कर इसकी महिमा को खंडित करने का कुत्‍सित प्रयास किया। खासकर जब हरियाणा के संदर्भ में चर्चा होती है तो तथाकथित इतिहासकारों की लेखनी कुंद दिखाई पड़ती है।

इसके बाजजूद कुछ शोधार्थियों ने उन तथ्‍यों को दुनिया के सामने लाने का प्रयास किया जो आजादी के पहले आंदोलन में हरियाणा को गौरवान्‍वित कर रहे हैं। इन शोधार्थियों के मुताबिक हरियाणा का कोई भी हिस्‍सा ऐसा नहीं था, जो इस क्रांति में शामिल न हुआ हो। वीरों की धरती मानी जाने वाली इस धरती से हर जाति, वर्ग के लोगों प्रथम स्‍वाधीनता संग्राम में अपनी आहुति दी। इतिहासकार डॉ. सतीश चंद्र मित्‍तल इस घटना को युगांतकारी बताते हुए लिखते हैं कि इसमें करीब 3 लाख नागरिकों और सैनिकों ने बलिदान दिया। हजारों गांवों को मिट्टी का ढेर बना दिया गया तथा नगरों को विनष्‍ट कर दिया गया। भारत के लोगों ने धर्म रक्षा और स्‍वदेश प्रेम का अद्भुत परिचय देकर न केवल ईसाईकरण की प्रक्रिया को रोका, बल्‍कि अंग्रेजों का भारत से निष्‍कासन का मार्ग भी सुनिश्‍चित किया।

अनेक इतिहासकारों ने हरियाणा में इस प्रथम स्‍वातंत्र्य समर की शुरुआत अंबाला छावनी से मानी है। इतिहास के प्रोफेसर यूवी सिंह के मुताबिक अंबाला छावनी उत्‍तर भारत का सबसे महत्‍वपूर्ण स्‍थान था। यहां न केवल सैनिक छावनी थी, बल्‍कि यहां उत्‍तर भारत का प्रशिक्षण केंद्र भी था। इनफील्‍ड राइफलों की लांचिंग के बाद ब्रिटिश सेना यहीं उसके प्रयोग का प्रशिक्षण देती थी। गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों के खोल को मुंह से छीलने की बाध्‍यता पर यहां सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था। प्रो. यूवी सिंह बताते हैं इस विद्रोह को कुचलने के लिए अत्‍याचारी सत्‍ता ने 190 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, लेकिन क्रूरता की हदों को लांघते हुए नेशनल अर्काइव में इनमें से मात्र 12 के नामों का ही उल्‍लेख किया गया। प्रो यूवी सिंह बताते हैं कि 1857 के स्‍वतंत्रता आंदोलन में शहीद होने वाले सैनिक अधिकतर किसान घरों से थे। नेशनल आर्काइव सैनिकों के पुराने पत्र रखे हैं।

अम्बाला जिले में एक छोटी रियासत गढ़ी कोताहा भी थी। यहां के नवाब ने लोगों से मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की। जगाधरी में भी देशभक्ति जाग पड़ी और लोगों ने विद्रोह कर दी। एक अंग्रेजी अफसर ने बड़े दुखी होकर लिखा, ‘व्यापारियों को अंग्रेजी राज ने समृद्ध बनाने में बड़ी मदद की थी, पर जगाधरी के व्यापारी भी अंग्रेजी राज के विरुद्ध हो गए।’

कुरुक्षेत्र में इस दौरान 135 नागरिक शहीद हो गए। यहां 62 विद्रोहियों को लुटेरे बताकर मार दिया। थानेसर के गांवों में नंबरदारों का बड़ा प्रभाव था। उनके पास हथियार भी थे। उन्होंने नगाड़े बजाकर और झंडे उठाकर क्रांतिकारियों का साथ देने के लिए गांव वालों को आंदोलित किया। यहां प्रशासन ने क्रांतिकारियों को पकड़ कर पेड़ों पर लटका दिया।

पानीपत और करनाल जीटी रोड पर स्‍थित होने के कारण अंग्रेजों के लिए विशेष महत्‍व रखते थे। पानीपत में अंग्रेजों ने छावनी भी बना रखी थी। अंग्रेज पानीपत और थानेसर जिलों को विद्रोह से मुक्त नहीं रख सके। पानीपत में अली कलंदर की दरगाह विद्रोहियों की गतिविधियों का मुख्‍य केंद्र बनी। इस जिलों के बड़े –बड़े गांव विद्रोह के केंद्र बन गए। इनमें बल्ला, जलमाणा, असंध, छात्तर, उरलाना खुर्द आदि प्रमुख थे।
बगावत को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 13 जुलाई को बल्ला गांव पर हमला कर दिया। यहां सैकड़ों जाटों ने रामलाल जाट के नेतृत्व में कप्तान ह्यूज के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिए। अंग्रेजी सेना ने बल्ला गांव पर दोबारा हमला किया। जाट सैनिक एक बड़े मकान में मोर्चा बनाकर लड़ते रहे। अंग्रेजों ने तोपें लगाकर यह भवन गिरा दिया तो बागी सैनिक खुले मैदान में आ डटे। घमासान युद्ध में 100 भारतीय शहीद हो गए। इसके बाद स्‍थानीय लोग जलमाणा गांव में इकट्ठे हो गए।

अंग्रेजों ने लेफ्टिनेंट पियरसे को विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजा। उसे मुंह की खानी पड़ी। उसने अम्बाला और पानीपत से सैनिक सहायता मांगी, परन्तु वहां भी विद्रोह भड़क चुका था, जिस कारण उसे कोई मदद नहीं मिल सकी। करनाल जिले के असंध में अंग्रेज अफसर पियर्सन के नेतृत्‍व वाली फौज को खदेड़ दिया गया। इस इलाके में विद्रोह को बढ़ता देख अंग्रेजी कप्तान मैक्लिन को भेजा गया। उसने 16 जुलाई से तेज हमले शुरू कर दिए और असंध को जला कर खाक कर दिया। जलमाणा और छातर की भी दुर्दशा कर दी गई।

दिल्ली पर कब्‍जा करने के बाद ब्रिटिश सेना जीटी रोड पर सोनीपत के पास डेरा डाले हुए थी। सोनीपत के आसपास के लिबासपुर, बहालगढ़, खामपुर,अलीपुर, हमीदपुर सराय आदि गांवों के लोगों ने ब्रिटिश सेना को खदेड़ने की योजना बनाई। लिबासपुर गांव में उदमीराम ने ब्रिटिश सेना को रोकने के लिए 22युवकों का दल बनाया। उन्होंने वीरतापूर्वक अंग्रेज सैनिकों के दिल्ली-पानीपत के बीच आने-जाने के रास्ते को रोक दिया। संघर्ष में अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेजी सेना ने योजना बनाकर लिबासपुर गांव को घेर लिया। इस लड़ाई में अनेक ग्रामीण मारे गए। गांव को जी भर कर लूटा गया। अनेक लोगों को जीटी रोड पर पत्थर के रोलर से कुचल दिया गया। वीर उदमीराम को पेड़ से बांध कर हाथों में कीलें गाड़ दी। वह वीर 35 दिन तक तड़प कर शहीद हो गया। बड़ी संख्‍या में लोगों को गांव छोड़ने पड़े।

इस जिले का कुंडली गांव भी 1857 की अनेक यादों को संजोए हुए हैं। यहां के लोगों ने जीटी रोड से आने-जाने वाले अंग्रेजों को कभी नहीं बख्‍शा। ग्रामीणों को सबक सिखाने के लिए एक अंग्रेजी सेना ने गांव को घेर लिया और खूब लूटपाट की। उनके पशुओं को पकड़ अलीपुर में नीलाम कर दिया। 11 लोगों को सजा दी। इनमें से 8 को एक-एक वर्ष का कारावास तथा सुरता राम, बाजा और जवाहरा राम को काला पानी की सजा दी। ये तीनों कभी वापस नहीं आए। ग्रामीणों की जमीनें भी छीन ली गई।

झज्‍जर में उन दिनों नवाब अब्‍दुर्रहमान का शासन था, लेकिन जनता पर असली पकड़ खाप पंचायतों, सनातन धर्म सभा और जैन सभाओं की थी। अंग्रेजों के खिलाफ जहां नवाब अब्‍दुर्रहमान की सेना मोर्चा संभाले हुए थी, वहीं खास पंचायतों और धर्म सभाओं के आह्वान पर जनता भी लामबंद हो चुकी थी। 14 मई 1857 को दिल्‍ली का एजेंट का चार्ल्‍स मैटकाफ झज्‍जर आया तो रात को ही जनता की नारेबाजी शुरू हो गई। नवाब अब्‍दुर्रहमान ने चार्ल्‍स मैटकाफ को संदेश भिजवाया की वे जनाक्रोश के चलते उनकी यहां ठहरने की व्‍यवस्‍था नहीं करवा पाएंगे। शोधार्थी डॉ. दयानंद कादियान बताते हैं कि झज्जर रियासत के नवाब अब्दुल रहमान को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। क्रांति में इस जिले के 88 लोग शहीद हुए और अंग्रेजों ने 2 गांव जला दिए।

रोहतक जिले के लोगों की बहादुरी को अंग्रेज कभी नहीं भुला पाएंगे। 1857 में यहां के किसानों, दस्‍ताकारों और मजदूरों ने मिलकर ब्रिटिश अधिकारियों को नाको चने चबवाए। 24 मई 1857 को यहां अंग्रेजों के दफ्तर, बंगले, अदालतें और जेलें जला दीं। यहां के जाट, राजपूत और राजपूतों के सामने बंगाल सिविल सेवा के कलेक्‍टर जॉन आदम लोच के नेतृत्‍व वाली ब्रिटिश सेना टिक नहीं पाई। यहां के जाटों और राजपूत ने बकायदा अपनी हुकूमत का ऐलान किया और यहां पर खाप का झंडा फहराया गया। जॉन आदम लोच ने गोहाना भाग कर जान बचाई। लोगों ने महम और मदीना पर भी कब्जा कर लिया। यह बगावत जन-विद्रोह बन चुकी थी। जिले से अंग्रेजी राज खत्म हो चुका था।

रोहतक का छिन जाना अंग्रेजों की दिल्ली की लड़ाई में विशेष महत्व रखता था। इसलिए 8 अगस्त 1857 को ब्रिगेडियर निकल्सन को भारी सेना के साथ रोहतक भेजा गया। अंग्रेजी सेना ने शहर पर हमला कर दिया। स्‍थानीय लोगों ने शहर में बारूद बनाने की बड़ी फैक्टरी लगा रखी थी। इसमें अचानक आग लगने से भारी विस्फोट हो गया। बताया जाता है इस विस्फोट से करीब 500 लोग जलकर मर गए, परन्तु इसके बाद भी बागी, अंग्रेजों के हमले का वीरता से मुकाबला करते थे। युद्ध में अनेक अंग्रेज सैनिक मार गिराए गए और अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा।
लेफ्टिनेंट मैकफर्सन ने 12 अगस्त को चीफ कमिश्नर लाहौर को लिखा, ‘पता चला है कि रोहतक जिले के बागी बादशाह की सहायता के लिए दिल्ली गए थे। अब वे वापिस रोहतक आ गए हैं। वे हिसार की तरफ बढ़ने की सोच रहे हैं।’ लाहौर के सेना मुख्यालय ने निर्णय लिया कि हांसी, हिसार और सिरसा को काबू करने के लिए लाहौर से अंग्रेजी फौज भेजी गई।

हिसार, हांसी और सिरसा में अंग्रेजों की छावनियां थीं। यहां मौजूद सैनिक टुकड़ियां भी बगावत कर दिल्ली की तरफ बढ़ चलीं। 29 मई को भारतीय सैनिकों ने बड़े पैमाने पर बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। अंग्रेजी मेजर स्टाफ और अन्य अधिकारी व कर्मचारी हांसी छोड़ कर भाग निकले। जो नहीं भाग सके, उन्हें स्‍थानीय लोगों ने मार डाला।

हांसी में उस समय लाला हुक्म चंद जैन कानूनगो थे। शहर में ही एक मुसलमान जमींदार मिर्जा मुनीर बैग उनके अच्छे दोस्त थे। दोनों ने मिल कर हिन्दू और मुसलमानों का नेतृत्व किया। सरकार के खिलाफ बगावत करने के आरोप में इन दोनों को 19 जनवरी 1858 लाला हुक्म चंद जैन की हवेली के सामने पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी। मरने के बाद भी दोनों को अपमानित करने के लिए अंग्रेजों ने मानवता की सभी हदें लांघ दी। परंपरा के विरुद्ध हिन्‍दू हुक्म चंद के शव को दफनाया गया, जबकि मुस्‍लिम मिर्जा मुनीर बेग की लाश को जला दिया।
यहां गांव के विद्रोहियों व सैनिकों को पकड़ कर हांसी के बीच वाली सड़क पर रोड रोलर से कुचल दिया गया। सड़क शहीदों के खून से सनी यह सड़क आज भी लाल सड़क के नाम से जानी जाती है। इसी इलाके में बिरड़दास स्वामी को तोप से बांध कर उड़ाया गया।

हांसी के क्षेत्र से निपट कर 8 जुलाई को जनरल वानकोर्टलैंड ने हिसार की तरफ कूच किया। रास्‍ते में भट्टी और राजपूत ने उसका डटकर मुकाबला किया। इस कारण उसने रास्‍ता बदल कर फतेहाबाद की तरफ से जाना ठीक समझा। वहां स्‍थानीय लोगों ने उसका पुरजोर मुकाबला किया। गांव के गांव अंग्रेजों से लड़ते रहे और कुर्बानियां देते रहे, परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी।

हिसार में 29 मई को हरियाणा लाईट इन्फैन्ट्री और दादरी के घुड़सवारों ने बगावत की। शाहनूर खां और राजन बेग उनके नेता थे। बागी सेना हिसार के किले में जा घुसी। इस दौरान अंग्रेज कमांडिग अफसर मारा गया। स्‍थानीय लोग भारतीय सैनिकों की मदद के लिए उठ खड़े हुए। कलेक्टर को भी कचहरी में ही खत्म कर दिया गया। जेल पर हमला कर 40 कैदी छुड़ा लिए। यह काम सरकारी चौकीदारों, मालियों और नौकरों ने ही कर दिया। हिसार के तहसीलदार की उसके चपरासी ने हत्‍या कर दी।

अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए बागियों ने किले के मुख्य द्वार नागौरी गेट पर हमला किया। कुल्हाड़ियों से वे कीलों वाले भारी भरकम दरवाजों को काटने लगे। अंग्रेजी सेना ने उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। बागियों ने डटकर मुकाबला किया। इसके बाद विद्रोही नहर का पुल पार कर डोगरा मोहल्ले में जा डटे और वहां से किले पर गोलीबारी करते रहे। इस लड़ाई में 500 के करीब स्‍थानीय लोग मारे गए। इस लड़ाई बाद अंग्रेजों ने हिसार जिले पर दोबारा कब्‍जा किया और 133 बहादुर देश भक्तों को फांसी की सजा दे दी गई।

भिवानी जिले के तोशाम और उसके आसपास के कई गांवों ने 29 मई के दिन अंग्रेजी प्रशासन पर हमला बोल दिया। इतिहासकार लिखते हैं कि इन गांवों में हिन्दू, मुसलमान, जाट, राजपूत , ब्राह्मण, धानक, चमार, तेली और बनिए सभी विद्रोह में शामिल थे। दादरी के नवाबों के सिपाही और बंगाल आर्मी के बागी सिपाही भी विद्रोह में शामिल हुए। हाजमपुर, भाटोल रांघडान, खरड़ अलीपुर और मंगाली को भी जला कर खाक कर डाला गया।

रेवाड़ी में राव तुलाराम ने विद्रोह का सूत्रपात किया। उन्‍होंने 17 मई को करीब पांच हजार सैनिक लेकर तहसील पर हमला कर सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। दिल्ली के बादशाह की तरफ से अपने को यहां का शासक घोषित कर दिया। अब रेवाड़ी, भोड़ा और शाहजहांपुर के गांव उसके अधीन आ गए थे। रेवाड़ी के पास रामपुरा के किले में राव तुलाराम ने अपनी राजधानी बना ली।
आजादी की ये आग 13 मई को गुरुग्राम पहुंची तो इसने इतिहास की एक भीषण त्रासदी को जन्म दिया। यहां 50 से भी ज्यादा लोगों को या तो गोली मार दी गई, नहीं तो फांसी पर लटका दिया गया। इस प्रकार यहां से करीब 500 लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे। गुरुग्राम शहर में आज जहां कमला नेहरू पार्क है,1857 में वहां पीपल आदि काफी पेड़ हुआ करते थे।

आजादी के दीवाने यही बैठकर क्रांति की योजना बनाते थे। अंग्रेजों ने यहां 9 लोगों को पेड़ों से लटका कर सामूहिक फांसी ले दी थी। गुरुग्राम में उन दिनों विलियम फोर्ड कलेक्‍टर था। 11 मई को यहां विद्रोही सैनिकों ने दिल्‍ली से गुरुग्राम की ओर रुख किया। रास्ते में बिजवासन गांव के पास अंग्रेजी सेना और क्रांतिकारियों में टक्कर हो गई। अंग्रेज सेना भाग खड़ी हुई। अंग्रेज कलेक्टर गुरुग्राम छोड़ कर भाग निकला। जान बचाने के लिए वह भोंडसी और पलवल होता हुआ मथुरा की तरफ निकल गया।
मेवात के अनेक गांवों के मेव बगावत में शामिल हो गए। शम्सुद्दीन की फांसी की याद भी उन्हें ताजा हो गई। अब लोगों को विश्वास हो गया था कि अंग्रेजी राज को खत्म किया जा सकता है। मेवात के चौधरियों और नेताओं ने दिल्ली के बादशाह को अपना बादशाह कबूल कर लिया और ब्रिटिश सेना को चुनौती दी। यहां के गांव नंगली में हुई लड़ाई में मेवों ने अंग्रेज सैन्‍य अधिकारी मैक्सन को मारा गिराया।

होडल और हथीन के कुछ गांव विद्रोह में शामिल नहीं हुए। इससे गुस्‍साए सौरोत जाटों ने उन गांवों पर हमला कर दिया। सेवली के पठानों और मेवों ने भी हथीन पर धावा बोल दिया और मई के अंत तक जिले का यमुना नदी तक का क्षेत्र अंग्रेजों से मुक्‍त करवा लिया गया।
वर्तमान फरीदाबाद जिले की रियासत बल्लभगढ़ में उन दिनों का राजा नाहर सिंह का शासन था। नाहर सिंह के अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध थे, परन्तु उन्हें कम्पनी राज द्वारा अपनी रियासत के गांव छीन लेना अच्छा नहीं लगता था।

11 मई को जब विद्रोही सेनाओं ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया, तो राजा नाहर सिंह ने भी बगावत कर डाली। घुड़सवारों और सैनिकों की एक टुकड़ी दिल्ली भेज दी। उन्‍होंने जल्द ही पलवल, होडल और फतेहपुर के परगनों पर कब्जा कर लिया। उसकी नाकाबंदी इतनी मजबूत थी कि अंग्रेजी सेना दक्षिण की ओर से दिल्ली पर आक्रमण नहीं कर पाई। कर्नल लॉरेंस ने गवर्नर जनरल को लिखे पत्र में राजा नाहर सिंह की सूझबूझ, शूरवीरता और प्रबंधन क्षमता का जिक्र किया है। बाद में जनरल शावर के नेतृत्‍व में राजा को गिरफ्तार कर उसे दिल्ली लाया गया और मुकद्दमे के नाटक कर उन्‍हें राजद्रोह के आरोप में फांसी दे दी गई।
प्रो. यूवी सिंह का कहना है कि सैनिकों की धार्मिक भावनाओं से खेलना ब्रिटिश हुकूमत के लिए भारी पड़ा। वे कहते हैं कि 1857 की क्रांति से पहले ही अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों में आग लगनी शुरू हो गई थी। निगरानी के लिए अंग्रेज ठीकरी पहरा भी लगाते थे, लेकिन उन्‍हें कुछ भी पता नहीं चलता था। उनका मानना है कि आक्रोशित सैनिक ही यह काम करते थे। वे बताते हैं कि लांस नायक हरबंस सिंह ने चर्बी वाले कारतूस तो प्रयोग कर लिए लेकिन बाद में अंग्रेज के बंगले में आग लगा दी।

सभी क्षेत्रों से सभी वर्गों के इस प्रकार ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एकजुट होने के पीछे अनेक विद्वान आर्थिक कारण बताते हैं। उनका कहना है ब्रिटिश सरकारने जिस प्रकार से कृषक वर्ग को तबाही के कगार पर पहुंचाया, उससे खेतीबाड़ी पर आश्रित दूसरे तबके भी कमजोर पड़ गए। बुनकर, कुम्हार, लुहार, खाती,चमार आदि पर अंग्रेजी रणनीति भारी पड़ी। ये सभी जजमानी व्यवस्था के तहत ही अपनी आजीविका कमा रहे थे। इन सभी का ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लामबंद होने का एक यह भी कारण था। इसके साथ ही आक्रोश का प्रमुख कारण भारत राष्‍ट्र की अंतर्चेतना भी है, जो कभी भी अपने स्‍व पर आंच नहीं आने देती। भारत की यह चिति उसके जनमानस पर ऐसे प्रत्‍यक्ष रूप से प्रलक्षित होती है।

दिनेश कुमार (लेखक एवं पत्रकार)

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जेएनयू में फीस वृद्धि के नाम पर राजनीति

—यह भी सुनने में आ रहा है कि आंदोलन में शामिल होने वाले व्यक्तियों में कई लोग राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं

Published

सुरेश हिन्दुस्थानी

देश के उच्च शिक्षा केन्द्र जब राजनीति के अड्डे बनने की ओर कदम बढ़ाने लगें, तब वहां की शिक्षा की दिशा-दशा क्या होगी, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। फीस बढ़ोतरी के खिलाफ किया जाने वाला दिल्ली का छात्र आंदोलन कुछ इसी प्रकार का भाव प्रदर्शित कर रहा है, जहां केवल और केवल राजनीति ही की जा रही है। किसी भी आंदोलन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके पीछे जनहित का कितना भाव है। दिल्ली का यह आंदोलन जनसरोकार से कोसों दूर दिखाई दे रहा है।

हालांकि इसके पीछे बहुत से अन्य कारण भी होंगे। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि आज जेएनयू की जो छवि जनता के बीच बनी है, वह जनता को खुद ही दूर कर रही है। जिस विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारों की ध्वनि गूंजित होती है, वह कभी जन आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सकते हैं।दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के जिन छात्रों ने कभी भारत के टुकड़े करने के नारे लगाए थे, आज वे ही छात्र फीस बढ़ोतरी के छोटे से मामले को राजनीतिक रुप देने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं। इस छात्र आंदोलन का राजनीतिक स्वरुप इसलिए भी दिखाई दे रहा है, क्योंकि इसमें राष्ट्रीय मानबिन्दुओं और केन्द्र सरकार को सीधे निशाने पर लिया जा रहा है। जेएनयू वामपंथी विचारधारा का एक बड़ा केन्द्र रहा है।

वामपंथी धारा के कार्यकर्ता देश के महानायकों के बारे में क्या सोच रखते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। पिछले घटनाक्रमों को देखें तो पाएंगे कि जेएनयू में देश के विरोध में वातावरण बनाने का काम किया जाता रहा है। वहां आतंकवादी बुरहान वानी के समर्थन में कार्यक्रम किए जाते हैं। सवाल यह कि जेएनयू में शिक्षा के नाम पर आखिर क्या हो रहा है। जहां तक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में फीस बढ़ोतरी की बात है तो यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि विगत 19 वर्ष से विश्वविद्यालय के छात्रावास के कमरों और भोजन का शुल्क नहीं बढ़ाया गया, जबकि पिछले 19 सालों में महंगाई का ग्राफ बहुत ऊपर गया है। इस सबका भार पूरी तरह से विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के कंधों पर ही आया। देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी शिक्षा महंगी हो रही है, जो जेएनयू के मुकाबले बहुत अधिक है। ऐसे में विश्वविद्यालय द्वारा कुछ हद तक फीस बढ़ाना न्यायोचित कदम ही है। जिसे वहां के कई छात्र भी सही मानते हैं। लेकिन यह आंदोलन इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि इसमें परदे के पीछे राजनीतिक कार्यकर्ता भूमिका निभा रहे हैं। यह भी सुनने में आ रहा है कि आंदोलन में शामिल होने वाले व्यक्तियों में कई लोग राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं।

खैर… यह जांच का विषय हो सकता है।देश के प्रसिद्ध अधिवक्ता सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इस छात्र आंदोलन के बारे में बहुत ही गहरी बात कही है। उनका मानना है कि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय को कुछ समय के लिए बंद कर दिया जाए। उनके इस कथन के गहरे निहितार्थ निकल रहे हैं। स्वामी के संकेत को विस्तार से समझना हो तो एक बार जेएनयू की गतिविधियों का अध्ययन करना चाहिए। फिर वह सब सामने आ जाएगा जो वहां होता है। कहा जाता है कि इस विश्वविद्यालय में जमकर राजनीति की जाती रही है। देश के जो शिक्षा केन्द्र राजनीति के केन्द्र बनते जा रहे हैं, उन पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।

वर्तमान में जिस प्रकार से जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय का आंदोलन चल रहा है, उसे छात्र आंदोलन कहना न्याय संगत नहीं होगा। क्योंकि, यह विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन है। फीस बढ़ोतरी का विरोध तो मात्र बहाना है। इस आंदोलन के समर्थन में देश की संसद में कांग्रेस और वामपंथी दलों की ओर से आवाज उठाई गई। इससे यही संदेश जाता है कि इस विश्वविद्यालय में जो देश विरोधी नारे लगाए गए, उनके प्रति इन राजनीतिक दलों के समर्थन का ही भाव रहा होगा। इतना ही नहीं, जब भारत तेरे टुकड़े होंगे और हमें चाहिए आजादी जैसे नारे लगाए गए थे, तब भी कांग्रेस और वाम दलों ने खुलेआम समर्थन किया था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि कहीं यही दोनों दल छात्रों को आंदोलन करने के लिए तो नहीं उकसा रहे? अगर यह सही है तो फिर केन्द्र सरकार को दोष देना सही नहीं कहा जा सकता।

जब से देश में राजनीतिक सत्ता का परिवर्तन हुआ है, तब से ही देश में उन संस्थानों की सक्रियता दिखाई देने लगी है, जो भारत के बारे में भ्रम का वातावरण बनाने में सहायक हो सकते हैं। चाहे वह शहरी नक्सलवाद को प्रायोजित करने वाले कथित बुद्धिजीवियों की संस्था हो या फिर उनके विचार को अंगीकार करने वाली ही संस्थाएं क्यों न हों। सभी केन्द्र सरकार का विरोध करने के लिए आगे आ रहे हैं। इस विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने वाले छात्र कभी भारतीय सेना द्वारा की जाने वाली आतंकियों के विरोध में कार्यवाही पर सवाल उठाते दिखाई देते हैं तो कभी अनुच्छेद 370 को हटाने का विरोध करते हैं। चार वर्ष पूर्व जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में छात्र संघ की उपाध्यक्ष रहीं शेहला राशिद ने भारतीय सेना के विरोध में जमकर भड़ास निकाली थी, जबकि सेना की ओर से स्पष्ट कहा गया था कि ऐसा कुछ भी नहीं है। इससे समझ में आ सकता है कि इस विश्वविद्यालय में कौन-सा पाठ पढ़ाया जाता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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देश की युवा पीढ़ी में विदेशों के प्रति रुचि बढ़ी

—गांव के लोगों की सोच भी शहरी सोच से प्रभावित हो रही है। खासकर गांव के युवाओं में शहरियों के अनुकरण और शहर को पलायन की प्रवृति लगातार बढ़ रही है

Published

मनोज ज्वाला

एक मीडिया संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश के पढ़े-लिखे और शहरी नौजवानों में से आधे से अधिक ऐसे हैं, जो अपने देश को पसंद नहीं करते। वे विदेशों में जाकर बस जाना चाहते हैं। लगभग दो साल पहले के उक्त सर्वेक्षण के मुताबिक उनमें से 75 फीसदी युवाओं का कहना था कि वे बे-मन और मजबूरीवश भारत में रह रहे हैं। 62.08 फीसदी युवतियों और 66.01 फीसदी युवाओं का मानना था कि भारत  में उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। क्योंकि, यहां अच्छे दिन आने की संभावना कम है। उनमें से 50 फीसदी का मानना था कि भारत में किसी महापुरुष का अवतरण होगा, तभी हालात सुधर सकते हैं, अन्यथा नहीं।

40 फीसदी युवाओं का मानना था कि उन्हें अगर इस देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, तो वे पांच साल में इस देश का कायापलट कर देंगे।अखबार का वह सर्वेक्षण आज भी बिल्कुल सही लगता है। अगर व्यापक स्तर पर सर्वेक्षण किया जाता, तो देश छोड़ने को तैयार युवाओं का प्रतिशत और अधिक दिखता। वह सर्वेक्षण तो सिर्फ शहरों तक सीमित था। अपने देश में गांवों पर भी तेजी से शहर छाते जा रहे हैं। गांव के लोगों की सोच भी शहरी सोच से प्रभावित हो रही है। खासकर गांव के युवाओं में शहरियों के अनुकरण और शहर को पलायन की प्रवृति लगातार बढ़ रही है। गौर कीजिए कि देश छोड़ने को तैयार वे युवा पढ़े-लिखे हैं और शहरों में पले-बढ़े हैं। वे किस पद्धति से किस तरह के विद्यालयों में क्या पढ़े-लिखे हैं और किस रीति-रिवाज से कैसे परिवारों में किस तरह से पले-बढ़े हैं, यह ज्यादा गौरतलब है।

विद्यालय सरकारी हों या गैर सरकारी, सभी में शिक्षा की पद्धति एक है और वह है मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति। भारतीयता विरोधी इसी शिक्षा पद्धति को सरकारी मान्यता प्राप्त है। सरकार का पूरा तंत्र इसी तरह की शिक्षा के विस्तार में लगा हुआ है। वैसे अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय सबसे अच्छे माने जाते हैं और गैर-सरकारी निजी क्षेत्र के अधिकतर विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के ही हैं। शहरों में ऐसे ही विद्यालयों की भरमार है और जिन युवाओं के बीच उक्त मीडिया संस्थान ने उपरोक्त सर्वेक्षण किया उनमें से सर्वाधिक युवा ऐसे ही तथाकथित ‘उत्कृष्ट’ विद्यालयों से पढ़े-लिखे हुए हैं। अब रही बात यह कि इन विद्यालयों में आखिर शिक्षा क्या और कैसी दी जाती है, तो यह इन युवाओं की उपरोक्त सोच से ही स्पष्ट है।

जाहिर है, उन्हें शिक्षा के नाम पर ऐसी-ऐसी डिग्रियां दी जाती हैं, जिनके कारण वे महात्वाकांक्षी, स्वार्थी बनकर असंतोष, अहंकार, खीझ, पलायन एवं हीनता-बोध से ग्रसित हो जाते हैं और कमाने-खाने भर थोड़े-बहुत हुनर हासिल कर स्वभाषा व स्वदेश के प्रति ‘नकार’ भाव से पीड़ित होकर विदेश चले जाते हैं।थॉमस विलिंग्टन मैकाले कोई शिक्षा-शास्त्री नहीं था। वह एक षड्यंत्रकारी था, जिसने भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की जड़ें जमाने की नीयत से भारतीय शिक्षा-पद्धति की जड़ें उखाड़कर मौजूदा शिक्षा-पद्धति को प्रक्षेपित किया था। जो आज भी उसी रूप में कायम है। 20 अक्टूबर 1931 को लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ फौरन अफेयर्स के मंच से महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘अंग्रेजी शासन से पहले भारत की शिक्षा-व्यवस्था इंग्लैण्ड से भी अच्छी थी।’ उस पूरी व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से समूल नष्ट कर देने के पश्चात ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की जरूरतों के मुताबिक उसके रणनीतिकारों ने लम्बे समय तक बहस-विमर्श कर के मैकाले की योजनानुसार यह शिक्षा-पद्धति लागू की थी।

मैकाले ने ब्रिटिश पार्लियामेंट की शिक्षा समिति के समक्ष कहा था ‘हमें भारत में ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करना चाहिए, जो हमारे और उन करोड़ों भारतवासियों के बीच जिन पर हम शासन करते हैं, उन्हें समझाने-बुझाने का काम कर सके। जो केवल खून और रंग की दृष्टि से भारतीय हों, किन्तु रुचि, भाषा व भावों की दृष्टि से अंग्रेज हों।’ विदेशों में बस जाने को उतावले भारतीय युवाओं ने पूरी मेहनत व तबीयत से मैकाले शिक्षा-पद्धति को आत्मसात किया है, ऐसा समझा जा सकता है। यहां प्रसंगवश मैकाले के बहनोई चार्ल्स ट्रेवेलियन द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट की एक समिति के समक्ष ‘भारत में भिन्न-भिन्न शिक्षा-पद्धतियों के भिन्न-भिन्न परिणाम’ शीर्षक से प्रस्तुत किये गए एक लेख का यह अंश भी उल्लेखनीय है कि ‘मैकाले शिक्षा-पद्धति का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता। हमारे पास उपाय केवल यही है कि हम भारतवासियों को यूरोपियन ढंग की उन्नति में लगा दें। इससे हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत आसान और असंदिग्ध हो जाएगा।’ ऐसा ही हुआ। बल्कि, मैकाले की योजना तो लक्ष्य से ज्यादा ही सफल रही।

हमारे देश के मैकालेवादी राजनेताओं ने अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के बाद भी उनकी अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति को न केवल यथावत कायम रखा, बल्कि उसे और ज्यादा अभारतीय रंग-ढंग में ढाल दिया। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष लक्षित प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति को अतीत के गर्त में डालकर शिक्षा को उत्पादन-विपणन-मुनाफा-उपभोग-केन्द्रित बना देने और उसे नैतिक सांस्कृतिक मूल्यों से विहीन कर देने तथा राष्ट्रीयता के प्रति उदासीन बना देने का ही परिणाम है कि हमारी यह युवा पीढ़ी महज निजी सुख-स्वार्थ के लिए अपने देश से विमुख हो जाना पसंद कर रही है। उसे विदेशों में ही अपना भविष्य दीख रहा है।

माना कि हमारे देश में तरह-तरह की समस्याएं हैं, किन्तु इनसे जूझने और इन्हें दूर करने की बजाय पलायन कर जाने अथवा कोरा लफ्फाजी करने कि हमें प्रधानमंत्री बना दिया जाए तो हम देश को सुंदर बना देंगे, अति महात्वाकांक्षा-युक्त मानसिक असंतुलन का ही द्योत्तक है। लेकिन आधे से अधिक ये शहरी युवा मानसिक रुप से असंतुलित नहीं हैं, बल्कि असल में वे पश्चिम के प्रति आकर्षित हैं। इसके लिए हमारे देश की चालू शिक्षा-पद्धति का पोषण करने वाले हमारे राजनेता ही जिम्मेवार हैं। यह ‘यूरोपियन ढंग की उन्नति’ के प्रति बढ़ते अनावश्यक आकर्षण का परिणाम है। इस मानसिक पलायन को रोकने के लिए जरूरी है कि हम अपने बच्चों को हमारे राष्ट्र की जड़ों से जोड़ने वाली और संतुलित समग्र मानसिक विकास करने वालीप्राचीन भारतीय पद्धति से भारतीय भाषाओं में समस्त ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने की सम्पूर्ण व्यवस्था कायम करें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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भाई-बहन में प्रेम भाव बढ़ाता है भैया दूज

–बताया जाता है कि भगवान सूर्यदेव की पत्नी छाया की कोख से यमराज और यमुना का जन्म हुआ था

Published

योगेश कुमार गोयल

(भैया दूज, 29 अक्टूबर पर विशेष)

भाई-बहन के दिलों में पावन संबंधों की मजबूती और प्रेमभाव स्थापित करने वाला पर्व है भैया दूज। इस दिन बहनें अपने भाईयों को तिलक लगाकर ईश्वर से उनकी दीर्घायु की कामना करती हैं। कहा जाता है कि इससे भाई यमराज के प्रकोप से बचे रहते हैं। दीपावली के दो दिन बाद अर्थात कार्तिक शुक्ल द्वितीया को मनाए जाने वाले इस पर्व को ‘यम द्वितीया’ व ‘भ्रातृ द्वितीया’ के नाम से भी जाना जाता है। बहुत से भाई-बहन सौभाग्य तथा आयुष्य की प्राप्ति के लिए इस दिन यमुना अथवा अन्य पवित्र नदियों में साथ-साथ स्नान भी करते हैं। भैया दूज मनाने के संबंध में कई किवंदतियां प्रचलित हैं। एक कथा यमराज और उनकी बहन यमुना देवी से संबंधित है। बताया जाता है कि भगवान सूर्यदेव की पत्नी छाया की कोख से यमराज और यमुना का जन्म हुआ था। यमुना अपने भाई यमराज से बहुत स्नेह करती थीं और अक्सर उनसे अनुरोध करती रहती थीं कि वे अपने इष्ट-मित्रों सहित उसके घर भोजन के लिए पधारें लेकिन यमराज हर बार उसके निमंत्रण को किसी न किसी बहाने से टाल जाते। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना ने यमराज को एक बार फिर भोजन के लिए आमंत्रित किया।

उस समय यमराज ने विचार किया कि मैं तो अपने कर्त्तव्य से बंधा सदैव प्राणियों के प्राण ही हरता हूं। इसलिए इस चराचर जगत में कोई भी मुझे अपने घर नहीं बुलाना चाहता। लेकिन बहन यमुना तो मुझे बार-बार अपने घर आमंत्रित कर रही है। इसलिए अब तो उसका निमंत्रण स्वीकार करना ही चाहिए।यमराज को अपने घर आया देख यमुना की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने भाई का खूब आदर-सत्कार करते हुए उनके समक्ष नाना प्रकार के व्यंजन परोसे। बहन के आतिथ्य से यमराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे कोई वर मांगने को कहा। इस पर यमुना ने उनसे अनुरोध किया कि आप प्रतिवर्ष इसी दिन मेरे घर आकर भोजन करें और मेरी तरह जो भी बहन इस दिन अपने भाई का आदर-सत्कार करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने बहन यमुना को उसका इच्छित वरदान दे दिया। ऐसी मान्यता है कि उसी दिन से ‘भैया दूज’ का पर्व मनाया जाने लगा। भैया दूज के संबंध में और भी कई कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी ही एक कथा के अनुसार, एक ब्राह्मण की दो संतानें थी।

एक पुत्र एवं एक पुत्री। पुत्री बहुत समझदार एवं गुणवती थी। वह अपने भाई से जी-जान से प्यार करती थी। एक दिन उसका भाई उससे मिलने उसकी ससुराल पहुंचा। उस समय वह सूत कातने में व्यस्त थी। अतः उसे भाई के आने का पता ही न चल सका। भाई भी बिना कुछ बोले चुपचाप एक ओर बैठा रहा। जब थोड़ी देर बाद बहन की नजर उस पर पड़ी तो भाई को अपने घर आया देख उसे बेहद खुशी हुई। उसने भाई का भरपूर आदर-सत्कार किया। अगले दिन भाई को वापस लौटना था। अतः रास्ते के लिए वह आटे के पकवान बनाने के उद्देश्य से चक्की में आटा पीसने लगी। अनजाने में चक्की में बैठा सांप भी आटे के साथ पिस गया। उसी आटे के पकवान एक पोटली में बांधकर उसने भाई को रास्ते में खाने के लिए देकर विदा किया। भाई के घर से जाने के बाद जब उसे यह मालूम हुआ कि आटे में सांप पिस गया है तो अपने पुत्र को पालने में ही सोता छोड़कर वह अपने भाई के प्राणों की रक्षा के लिए दौड़ी। कुछ दूर जाने पर उसे एक पेड़ की छांव में अपना भाई सोता दिखाई दिया। तब तक उसने पोटली में से कुछ भी नहीं खाया था। उसने भगवान का शुक्रिया अदा किया और पोटली उठाकर दूर फेंक दी तथा भाई के साथ मायके की ओर चल दी।

रास्ते में उसने देखा कि भारी-भारी शिलाएं आकाश में उड़ रही हैं। उसने एक राहगीर से इस रहस्य के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया कि जो बहन अपने भाई पर कभी नाराज न होती हो और उसे दिलो-जान से चाहती हो, उस भाई की शादी के समय ये शिलाएं उसकी छाती पर रखी जाएंगी। थोड़ी दूर चलने पर उसे नाग-नागिन दिखाई दिए। नाग ने बताया कि ये शिलाएं जिस व्यक्ति की छाती पर रखी जाएंगी, हम उसे डंस लेंगे। जब बहन ने इस विपत्ति से बचने का उपाय पूछा तो नाग-नागिन ने बताया कि अगर भाई के विवाह के समय उसके सभी कार्य बहन स्वयं करे, तभी भाई की जान बच सकती है।जब उसके भाई के विवाह के लग्न का शुभ मुहूर्त आया तो वह भाई को पीछे धकेलती हुई स्वयं ही लग्न चढ़वाने के लिए आगे हो गई और घोड़ी पर भी स्वयं चढ़ गई। परिवारजन और संबंधी उसके इस विचित्र व्यवहार से हैरान तथा क्रोधित थे। उसके घोड़ी पर चढ़ते ही शिलाएं उड़ती-उड़ती आई लेकिन घोड़ी पर किसी पुरूष की जगह एक महिला को बैठी देख वापस मुड़ गई। जब सुहागरात का समय आया तो वह भाई को पीछे कर खुद भाभी के साथ सोने उसके कमरे में चली गई।

परिवार के सभी सदस्य तथा सभी रिश्तेदार उसके इस अजीबोगरीब व्यवहार से बेहद आश्चर्यचकित और खफा थे। उन्हें उस पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन उसके जिद के समक्ष सभी विवश थे। सुहागरात पर नियत समय पर नाग-नागिन उसके भाई को डंसने कमरे में पहुंच गए लेकिन उसने नाग-नागिन को मारने की सारी तैयारी पहले ही कर रखी थी। आखिरकार उसने नाग-नागिन का काम तमाम कर दिया। उसके बाद वह निश्चिंत होकर सो गई। सुबह होने पर सभी मेहमानों को विदा करने के बाद परिवार वालों ने सोचा कि अब इस बला को भी कुछ बचा-खुचा देकर यहां से चलता कर दिया जाए लेकिन नींद से जागने पर जब उसने पूरी घटना के बारे में सब को विस्तार से बताया कि किस प्रकार वह अपने बच्चे को पालने में ही सोता छोड़कर दौड़ी-दौड़ी भाई के प्राण बचाने के लिए उसके पीछे चली आई और सभी को नाग-नागिन के मृत शरीर दिखाए तो सभी की आंखों में आंसू आ गए।

भाई के प्रति उसका असीम प्यार तथा समर्पण भाव देखकर उसके प्रति सभी का हृदय श्रद्धा से भर गया।भाई-भाभी तथा माता-पिता ने उसे ढेर सारे उपहारों से लादकर बड़े मान-सम्मान के साथ खुशी-खुशी ससुराल से विदा किया। भाई-बहन के बीच इसी प्रकार के पावन संबंध, प्रेमभाव तथा उनके दिलों में आपसी संबंधों को मजबूत बनाने के लिए ही ‘भैया दूज’ पर्व मनाया जाता है।

(लेखक स्तंभकार हैं।)

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